एक वृक्ष
सूखा हुआ,
है खड़ा |
मानो है किसी
की ताक़ में,
खो चूका ,
अपना पता|
है खड़ा ,
इस चाह में ,
कोई आये और बनादे,
उसे उनके जैसा हरा भरा|
ये इच्छाएं ,
सिमटकर रह गयी,
जब देखी दूसरो की,
यह टालम टूली|
अब करना पड़ा ,
संतोष ,
जान पड़ा अपना,
पता,
और कहता बस मैं हूँ ,
एक सूखा सा घडा |
आपकी इस रचना को पढकर अपनी एक तुकबंदी याद हो आई। बडी गहरी सोच रखते हो भाई। शानदार।
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