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Sunday, June 26, 2011

संतोष

यह व्रतांत तब का है जब मैं अपनी बिमारी दिखने डॉक्टर के पास गया था |
बात है एक उजाड़ मोहल्ले की | पूरा मोहल्ला मानो अपनी गरीबी का द्रश्य अपने रंग और पहनावे से दिखलाता हो| कोई 'बाई' फटी साड़ी पहनकर बर्तन मांजती मानो सोच रही हो की उनकी आजीविका इस पर ही निर्भर है,जो किसी हद तक सही भी है | वो 'बाई' अपनी मालकिन की हज़ार बेतुकी बातें (जिसमे आदेश के साथ गुस्सा भी मिला हुआ था) सुनते हुए अपना काम किये जा रही थी , मानो उस पर इन बातों का कोई असर नहीं हो रहा और यह भी स्पष्ट था कि इंसानियत का पाठ उसने अपनी मालकिन से ज्यादा पढ़ा है | फिर उस घर से नज़र मुड़ी तो ठहरी एक सब्जी बेचने वाले के घर में| उसने ठेला अपने घर के सामने रख छोड़ा था | ऐसा लगा कि मानो उसने अपनी दयनीय स्तिथि को समझाने के लिए बाहर रखा था | घर था या झोपड़ दोनों एक से ही लगते थे| उसका घर बाहरी ओर से पूरा खुला था| मगर वह अपनी कुछ आमदनी से इतना संतुष्ट था मानो की उसे अपना यह झोपड़ महल सा लगने लग गया है | ना उसके मूंह पर और आमदनी की ललक , ना ही उसमे कोई उम्मीद की झलक | अपने घर को वह महल समझ बैठा था , और बड़ी बड़ी बातों का भी पीछा नहीं छोड़ता| मैं उसके घर में कुछ और देखने की लालसा दिखाई , तो मैंने देखी एक अलमारी जो खुली तो हुई थी मगर उसमे थी ढेर साड़ी किताबें | और किताबें भी क्या थीं - ग़ालिब की शायरियाँ, प्रेमचंद की कर्मभूमि और बहुत कुछ |शायद उसके इस रंग रौवन का असर उसे किताबों से ही मिला है | ख़ैर, मैं परेशान था उस मोहल्ले में अपने डॉक्टर के नंबर को लेकर| एक तो नंबर जल्दी आने के बावजूद २८ मिला और डॉक्टर के आने में भी देरी हो गयी |
भीड़ में भी कई नमूने दिख ही जातें हैं | लम्बी लाइन में मेरे आगे खड़ा एक लड़का मजे से 'cigratte ' का छल्ला बनाते हुए गाने गा रहा था| मैंने उससे पुछा क्यों भाई क्या बिमारी है? तो उसने खा की भाई कुछ नहीं बस "lung infection ' हो गया है | भाई तेरा इलाज तेरे पास ही है | इलाज मालूम होते हुए भी डॉक्टर के पास २०० खर्च करने के लिए आ पड़ा| मालूम पड़ता था कि किसी अमीर बाप की औलाद है| इतने में उसका फ़ोन आया और अपनी कुछ बातें करने लगा | मैंने अपना ध्यान वहां से हटाया और कहीं और ताकता झांकता रहा |
कुछ देर बाद एक लम्बी सी कार आई | उसमे बेठे थे डॉक्टर साहब | जैसे ही उनकी गाड़ी रुकी तो उन्हें देखकर बहुत से लोग केबिन की तरफ भागे |उनका क्लिनिक बाहर से तो एक केबिन ही लग रहा था | मगर कुछ देर लाइन में लगने के बाद क्लिनिक एक कोम्पौंद क्लिनिक की तरह लगा | जिस मोहल्ले में लोग खाने पानी के लिए इतने कष्ट सहते हैं वहां इतना बड़ा क्लिनिक , ज़रूर यहाँ पर उनके लिए कुछ विशेष छूट होगी | कुछ देर बाद मेरा नंबर आया | लगा अब तो सीधे डॉक्टर के पास मगर जनाब ! अभी कहाँ ? अभी तो एक और लम्बी कतार बची थी | मेरे पास एक बुज़ुर्ग महिला आके बैठीं | उनके घुटने में fracture हो गया था | उनसे कुछ बात चीत चालू हुई ही थी डॉक्टर की बेल बजी और महिला उठ कर चल पड़ीं | डॉक्टर साहब की बेल उनकी समय के प्रति अनुशासन को झलकाता है | जो वास्तविकता में बिलकुल गलत है | खैर मैंने उन्हें अपनी बीमारी बताई और निकला वहां से| मगर जाते जाते जब उस उजाड़ पर निगाह पड़ी , तो फिर से कुछ लोग दिखाई पड़े |
सरकार की वास्तविकता यहाँ से झलकती है | जो सरकार मायनो को ना समझकर अपने दायित्वों से पीछे हटती है , उससे और क्या चाह सकते हैं |
मगर फिर भी जब ऐसी घटनायों का सामना होता है तो कुछ पंक्तियाँ मूंह से बाहर निकल ही जाती है , और मेरे मूंह से निकली -; भाई ! यह कैसी मदमस्त चाल?

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